32 अपराध
- rajeshtakyr
- Sep 19, 2024
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Updated: Oct 11, 2024

तिरुपति मंदिर में दर्शन के बाद जो प्रसाद दिया जाता है उसमें पशुओं की चर्बी इत्यादी का मिलना कितना बड़ा पाप है, आइये देंखें कि इस बारें में पुराण क्या कहते हैं?
वराह पुराण में भगवान् वराह कहते हैं- भद्रे ! आहार की एक सुनिश्चित शास्त्रीय मर्यादा है। अतः मनुष्यको क्या खाना चाहिये और क्या नहीं खाना चाहिये, अब यह बताता हूँ, सुनो।
शृणु भद्रे आहारं महाश्चर्यमाहारविधिनिश्चयम् ।
आहारं चाप्यनाहारं तच्छृणुष्व वसुन्धरे ॥ १ ॥
भुञ्जानो योऽति चाश्नाति मम योगाय माधवि ।
अतुल्यं कर्म कृत्वाऽपि पुरुषो धर्ममाश्रितः ॥ २ ॥
आहारं चैव कर्मज्ञा उपभुञ्जन्ति नित्यशः ।
सर्वे चात्रैव कर्मण्या व्रीहयः शालयस्तथा ॥ ३ ॥
हे माधवि ! जो भोजन के लिये उद्यत पुरुष मुझे अर्पित करके भोजन करता है, उसने अशुभ कर्म ही क्यों न किये हों, फिर भी वह धर्मात्मा ही समझा जाने योग्य है। धर्म के जानने वाले पुरुष को प्रतिदिन धान और यव आदि सब प्रकार के साधनों में जीवन की रक्षा के लिए आवश्यक अन्न से निर्मित आहार का ही सेवन करना चाहिये। जो वस्तुएं इस साधन में बाधक होती हैं, वह तुम्हें मैं बताता हूँ।
1. जो मुझे त्याज्य वस्तुएँ निवेदन करके खाता है, वह धर्म एवं मुक्ति परम्परा के विरुद्ध महान् अपराध करता है, चाहे वह महान् तेजस्वी ही क्यों न हो, यह मेरा पहला भागवत अपराध है। ये अपराध मुझे कभी भी पसन्द नहीं है।
2. बिना दातुन किए अथवा बिना दंतकाष्ठ किए मेरे पास आना यह उसका दूसरा अपराध है।
3. जो मनुष्य स्त्री के साथ सहवास करके मेरा स्पर्श या देवमूर्ति स्थान पर जाता है, तो ये उसके द्वारा होने वाला तृतीय कोटि का सेवापराध है । इससे धर्म में बाधा पड़ती है। और यह अपराध क्षमा के योग्य ही नहीं है।
4. जो व्यक्ति रजस्वला स्त्री को देखकर मेरे पास आता है तो यह उसका चौथा अपराध है।
5. जो मृतक का स्पर्श करके अपने शरीर को शुद्ध नहीं करता और मुझे छूता है तो यह उस का पाँचवां अपराध है। अपवित्रावस्था में मेरी उपासना में लग जाता है, तो मैं उसे क्षमा नहीं करता।
स्पृष्ट्ववा तु मृतकं चैन असंस्कारकृतं च वै ।
षष्ठमिमं चापराधं न क्षमामि वसुन्धरे ॥ १० ॥
6. वसुंधरे ! किसी मृतक को देखकर बिना अपने को शुद्ध किये मेरा स्पर्श करना छठा अपराध है।
7. पृथ्वि ! यदि उपासक पूजाकाल में ही मल त्याग के लिये चला जाय तो यह मेरी सेवा में होने वाला सातवाँ अपराध है।
8. वसुंधरे ! जो नीले वस्त्र पहन कर मेरी सेवा में उपस्थित होता है, यह उसके द्वारा आचरित होने वाला आठवाँ सेवा अपराध है।
9. जगत् को धारण करने वाली पृथ्वि ! जो मेरी पूजा के समय असत्य बोले यह मेरी सेवा का नवाँ अपराध है। यह मुझे रुचिकर नहीं है।
10. वसुंधरे ! जो बिना विधिविधान जाने मेरा पूजन करता है उसे मैं उसका दसवाँ अपराध मानता हूँ। वह मुझे अप्रिय लगता है।
11. जो व्यक्ति क्रोध में रहकर मेरी उपासना करता है, यह मेरी सेवा का ग्यारहवाँ अपराध है, इससे मैं अत्यन्त अप्रसन्न होता हूँ।
12. वसुंधरे ! जिन फूलों को कर्मों के लिए अनुपयोगी कहा गया है और कोई उनसे मेरा पूजन करते है तो वह उसका बारहवाँ अपराध है, जिसे मैं कभी माफ़ नहीं करता हूँ।
यस्तु रक्तेन वस्त्रेण कौसुम्भेनोपगच्छति ।
त्रयोदशापराधं तु कल्पयामि वसुन्धरे ॥ १७ ॥
13. जो लाल रंग के वस्त्र या कौसुम्भ पुष्प के रंग के वस्त्र पहनकर मेरी सेवा करता है, वह तेरहवाँ सेवा-अपराध होता है।
14. वसुंधरे ! जो अन्धकार में मेरा स्पर्श करता है, उसे मैं चौदहवाँ सेवा अपराध मानता हूँ।
15. वसुंधरे ! जौ मनुष्य काले वस्त्र धारण कर के मेरे कर्मों का सम्पादन करता है, वह उसका पंद्रहवाँ अपराध है।
16. हे वरानने ! जो मलीन-गंदे वस्त्र पहने हुए मेरी पूजा में संलग्न होता है, उसके द्वारा आचरित इस अपराध को मैं सोलहवाँ मानता हूँ।
17. माधवि ! जो अज्ञानी स्वयं पका कर बिना मुझे अर्पण किये खा लेता है, यह उसका सत्तरहवाँ अपराध है।
18. हे माधवी ! जो मत्स्य मांस को खाकर मेरी पूजा में आता है, उसके इस आचरण को मैं अठारहवाँ सेवापराध मानता हूँ।
19. हे सुन्दरी ! जो बतख को खा कर मेरे पास आता है, उसका यह कर्म मेरी दृष्टि में उन्नीसवाँ अपराध है।
नाचामेद् दीपकं स्पृष्ट्वा यो मां स्पृशति माधवि ।
विंशकं चापराधानि कल्पयामि वरानने ॥ २४ ॥
20. जो दीपक का स्पर्श करके बिना आचमन किए ही मेरी उपासना करता है, हे वरानने ! हे माधवी ! उसका वह कर्म मेरी सेवा का बीसवाँ अपराध है।
21. हे पृथिवी ! जो श्मशान भूमि में जाकर बिना शुद्ध हुए मेरी सेवा में उपस्थित हो जाता है, वह मेरी सेवा का इक्कीसवाँ अपराध है।
22. बाईसवाँ अपराध वह है, जो हींग भक्षण कर मेरी उपासना में उपस्थित होता है।
23. हे वसुन्धरे ! जो सूअर आदि के मांस को मुझे प्रदान करता है, उसके इस कार्य को मैं तेईसवाँ अपराध मानता हूँ।
24. जो मनुष्य सुरापान करके मेरी सेवा में उपस्थित होता है, हे वसुंधरे ! मेरी दृष्टि में यह चौबीसवाँ अपराध है।
25. जो कुसुम्भ और शाक भक्षण करके मेरी पूजा करता है, हे सुमध्यमे ! वह पच्चीसवाँ अपराध है। इसका अर्थ ये है कि अगर कोई व्यक्ति किसी भी प्रकार की वनस्पति या वनस्पतियों की हानि करके भगवान के पास जाता है तो वह उसका पच्चीसवाँ अपराध माना जायेगा।
26. हे मनोरमे ! जो दूसरे के वस्त्र पहन कर मेरी आराधना करता है, उसके उस कर्म को मैं छब्बीसवाँ अपराध मानता हूँ।
27. हे गुणन्विते ! जो नया अन्न उत्पन्न होने पर उसको देवताओं और अपने पितरों को यजन न कर उसे स्वयं खा लेता है, तो यह उसका सत्ताईसवाँ अपराध है।
28. देवि ! जो व्यक्ति जूतों को पहनकर मेरी पूजा करता है, उसके इस कार्य को मैं अट्ठाईसवाँ अपराध मानता हूँ।
29. हे माधवी ! जो शरीर की मालिश करके या उबटन लगा कर जो बिना स्नान किये मेरे पास चला आता है, यह उसका उन्तीसवाँ सेवा-अपराध है।
30. जो पुरुष अजीर्ण रोग से ग्रस्त होकर मेरे पास आता है, उसका यह कार्य मेरी सेवा का तीसवाँ अपराध है।
गन्धपुष्पाण्यदत्वा तु यस्तु धूपं प्रयच्छति ।
एकत्रिंशापराधं तु कल्पयामि मनस्विनि ॥ ३५ ॥
विना भेर्यादिशब्देन द्वारस्योद्घाटनं मम ।
महापराधं विद्येत तद् द्वात्रिंशापराधकम् ॥ ३६ ॥
31. हे मनस्विनी ! जो मुझे चन्दन और पुष्प अर्पण किये बिना, पहले धूप देने में ही तत्पर हो जाता है, उसके इस अपराध को मैं इकतीसवाँ मानता हूँ।
32. हे माधवी ! घंटी आदि द्वारा मङ्गल शब्द किये बिना यानि बिना मेरे आदेश के ही मेरे मन्दिर के द्वार को खोलना बत्तीसवाँ अपराध है। देवि ! इस बत्तीसवें अपराध को महापराध समझना चाहिये। (कृष्ण एक सत्यज्ञान पुस्तक के अंश)



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