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हिरण्याक्ष, रावण और शिशुपाल एक ही थे

Updated: Oct 20, 2024

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स्कन्दपुराण के कार्तिकमास माहात्म्य में बताया गया है कि महर्षि कर्दम की दृष्टि मात्र से तृणविन्दु की कन्या देवहूति के गर्भ से ‘जय’ और ‘विजय’ नाम के दो पुत्रों का जन्म हुआ। उन्होंने भगवान विष्णु की बहुत अनन्य भक्ति की। इस कारण से भगवान विष्णु ने उन्हें अपना द्वारपाल बना दिया।

गे चल कर स्कन्दपुराण के आवन्त्यखण्ड अवन्तीक्षेत्र माहात्म्य में बताया गया है कि एक बार ब्रह्माजी के मानसपुत्र सनकादि (सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार) नाम से जानें-जाने वाले चार ऋषि सभी लोकों में भ्रमण करते-करते वैकुण्ठधाम में आये। द्वार पर जय और विजय दोनों द्वारपाल खड़े थे। उन दोनों ने सनकादि ऋषियों को अन्दर जाने से रोक दिया क्योंकि विष्णुजी विश्राम कर रहें थे। ना रुकने पर जय और विजय ने उन ऋषियों को धक्का दे दिया जिस से वे ऋषि कुमार वहीं भूमि पर गिर पड़े और मूर्छित हो गये। शोर सुन कर विष्णु भगवान अपने भवन से बाहर आये और भूमि पर गिरे हुए कुमारों को देख कर बहुत दुःखित हुए। उन्होंने उन्हें उठा कर अपनी छाती से लगा लिया। सनकादि ऋषि उम्र में चाहे बड़े थे परन्तु वह पाँच-छः वर्ष के बालक ही लगते थे।

य और विजय के इस प्रकार किए व्यवहार से भगवान विष्णु बहुत दुःखी हुए। भगवान के छूने से चारों कुमार होश में आ गये और बोले-“महाराज ! हम आप के दर्शनों के लिए यहाँ आपके वैकुण्ठ धाम भीतर आना चाह रहे थे परन्तु इन दोनों ने हमें रोका भी और धक्का भी दे दिया, जिससे हमें मूर्छा आ गई थी। आगे ऐसा ना हो इस लिए ये दोनों असुरयोनि को प्राप्त होंगे, ये हमारा श्राप है इन्हें।”

गवान विष्णु के यही दोनों पार्षद आगे चल कर सत्ययुग में प्रथम जन्म लेकर ‘हिरण्यकशिपु’ और ‘हिरण्याक्ष’ बनें और त्रेता युग में दूसरा जन्म लेकर यही दोनों ‘कुम्भकर्ण’ और ‘रावण’ बनें। तथा तीसरे जन्म में इन दोनों का द्वापर युग में ‘दन्तवक्र’ और ‘शिशुपाल’ नाम से जन्म हुआ। कुछ लोगों को लगता है कि तीसरे जन्म में ‘जय’ का ‘कंस’ के रूप में जन्म हुआ था, ऐसा किसी पुराण में वर्णित नहीं है। तीनों जन्मों में वे एक दूसरे के भाई थे।

हले जन्म में ‘विजय’ ने ‘हिरण्याक्ष’ और ‘जय’ ने ‘हिरण्यकशिपु’ के रूप में जन्म लिया। दूसरे जन्म में ‘विजय’ ने ‘रावण’ और ‘जय’ ने ‘कुंभकर्ण’ के रूप में जन्म लिया। तीसरे जन्म में ‘विजय’ ने ‘शिशुपाल’ और ‘जय’ ने ‘दन्तवक्र’ के रूप में जन्म लिया था।

स कथा का वर्णन श्रीमद्भागवत महापुराण के प्रथम खण्ड के तृतीय स्कन्ध के पञ्चदशोऽध्यायः (१५) में भी किया गया है।

हिरण्याक्ष नामक दैत्य ने सभी देवताओं को जीत कर इन्द्र के स्वर्ग पर अधिकार कर लिया था और स्वयं को ही भगवान मानने लगा था।

“जब-जब धर्म की हानि होगी और अधर्म का उत्थान होगा, तब-तब मैं अपने आपको प्रकट करता रहूँगा।”- इस विचार के संग सदा रहने वाले भगवान श्रीकृष्ण ने वाराह रूप में जन्म लेकर दुर्धर्ष दैत्यराज हिरण्याक्ष को मार कर पीड़ित पृथ्वी को रसातल से बाहर निकाला था। पृथ्वी को दैत्य हिरण्याक्ष ने जल में डूबो दिया था तो वाराह भगवान ने वाराह के रूप में जन्म लेकर पृथ्वी को अपनी दाढ़ से उठा कर बाहर निकाल कर सब देवताओं और ऋषियों की रक्षा की थी। हिरण्याक्ष के संग उसके बहुत से साथी राक्षकों का भी वध वाराह भगवान ने किया था। इस सब के पश्चात ही यज्ञकुण्डों की अग्नियाँ पुनः प्रज्वलित हुईं थीं और चारों दिशाओं में शान्ति स्थापित हुई। भगवान वाराह के हृदय से उसी समय के दौरान सनातन आनन्ददायक वर देने वाली शिप्रा नदी प्रकट हुई थी।

हिरण्यकशिपु दैत्य की कथा श्रीविष्णुपुराण के प्रथम अंश के सत्रहवें अध्याय में कही गई है।

दितेः पुत्रो महावीर्यो हिरण्यकशिपुः पुरा ।

त्रैलोक्यं वशमानिन्ये ब्रह्मणो वरदर्पितः ॥ २ ॥

हिरण्याक्ष के भाई हिरण्यकशिपु नामक महाबली दैत्य ने अपने बाहुबल से सम्पूर्ण त्रिलोकी को अपने वशीभूत कर लिया था। देवताओं के राजा इन्द्र को भी राज्य से वंचित कर दिया था। वह हिरण्यकशिपु दानव स्वयं को ही इन्द्र, सूर्य, वायु, कुबेर, यमराज, वरूण, चन्द्रमा और यमराज मानने लगा था। ऐसा हिरण्यकशिपु को ब्रह्माजी से वरदान प्राप्त हुआ था और इसका उसे बहुत घमंड हो गया था। उसके भय से सभी देवता अपना रूप बदल कर साधारण मनुष्य बन कर रहने लगे थे। हिरण्यकशिपु का प्रह्लाद नाम का एक पुत्र था। प्रह्लाद भगवान विष्णु का बहुत सच्चा भक्त था। राजा हिरण्यकशिपु ने बहुत कोशिश की कि उसका पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु को छोड़ कर उसे ही केवल जगदीश्वर भगवान मानें परन्तु लाख कोशिशों के पश्चात भी विष्णु भक्त प्रह्लाद टस से मस नहीं हुआ।

कोऽयं विष्णुः सुदुर्बुद्धे यं ब्रवीषि पुनः पुनः ।

जगतामीश्वरस्येह पुरतः प्रसभं मम ॥ २१ ॥

ब क्रोध में आकर हिरण्यकशिपु ने अपने ही पुत्र विष्णु भक्त प्रह्लाद को मारने का हुक्म सुना दिया। उसकी आज्ञा सुनकर बहुत सारे दैत्यगण प्रह्लाद को मारने के लिए तैयार हो गये। हिरण्यकशिपु के दुबारा कहने से सभी दैत्यगण प्रह्लाद को मारने लगे परन्तु प्रह्लाद पर उन शस्त्र-समूह का कुछ भी आघात नहीं हुआ। तब राजा ने विषधर तक्षक को हुक्म दिया कि वे प्रह्लाद के जीवन को अपने विष से समाप्त कर दे। परन्तु प्रह्लाद पर इसका भी कुछ असर नहीं हुआ। तब सर्पों ने प्रह्लाद को अपने दांतों के प्रहार से मारना चाहा परन्तु तब भी प्रह्लाद पर कुछ असर नहीं हुआ। उल्टा उनके ही दांत टूट गये।

ब हिरण्यकशिपु स्वयं ही उठ कर प्रह्लाद को मारने हेतु अग्नि जला कर उसका वध करने लगा। तब भी कुछ नहीं हुआ तो पुरोहितों ने राजा को समझाया। फिर प्रह्लाद को अग्निसमूह से बाहर निकाला गया। परन्तु राजा हिरण्यकशिपु फिर भी नहीं माना। और अपने रसोइयों को बुलाकर बोला-“अरे सूदगणों ! तुम लोग खाद्य पदार्थों में हलाहल विष मिला कर इसे मार डालो।”

जैसी आज्ञा राजा ने दी थी वैसा ही किया गया परन्तु प्रह्लाद पर इसका भी कुछ असर नहीं हुआ। प्रह्लाद उस हलाहल विष को भी पचा गये। तब हिरण्यकशिपु ने अपने पुरोहितगणों को आज्ञा दी कि वे कृत्या उत्पन्न करके प्रह्लाद की जीवन लीला समाप्त कर दें। कृत्या प्रकट तो हुई और उसने प्रह्लाद पर प्रहार भी किया परन्तु वे स्वयं ही नष्ट हो गई। तब हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को सौ योजन ऊँचे महल से नीचे पृथ्वी पर गिरा दिया परन्तु फिर भी उनका कुछ नहीं हुआ।

फिर क्रोध में आकर राजा ने उठ कर प्रह्लाद के वक्षःस्थल पर अपनी लात मारी और हुक्म दिया कि इसे नागपाश में बाँध कर समुद्र में डाल दो। और इसके ऊपर पत्थरों का ढेर लगा दो।

तब प्रह्लाद बोले-“हे कमलनयन कृष्ण ! आपको नमस्कार है। आप मेरे ही रूप में स्थित हैं, आपको मैं बारंबार नमस्कार करता हूँ आप मुझ पर प्रसन्न हों।”

स प्रकार से कहते ही सभी नागपाश क्षणभर में ही टूट गये। तब भगवान विष्णु ने नृसिंहरूप धर कर हिरण्यकशिपु का वक्षःस्थल विदीर्ण करके दैत्य को मार दिया और प्रह्लाद को निर्वाणपद का वरदान दिया। इस कथा का वर्णन पद्मपुराण के उत्तरखण्ड में भी किया गया है।

अनादिमध्यान्तवपुः सर्वदेवमयो विभुः ।

विश्वतः पाणिपञ्चक्षुर्महादंष्ट्रो महाभुजः॥१६॥

एकया दंष्ट्रया दैत्यं जघान परमेश्वरः ।

संचूर्णितमहागात्रो ममार दितिजाधमः ॥१७॥

त्रेता युग में रावण का वध भगवान राम ने किया था ये तो सब को ही मालूम है। रावण के भाई कुंभकर्ण का वध रामचन्द्र जी के छोटे भाई लक्ष्मण ने किया था।

शिशुपाल का जब चेदिराज दमघोष के कुल में जन्म हुआ तो उसकी चार भुजाएँ और तीन आँखें थीं। पैदा होते ही उसने रोने की जगह पर गदहे के रेंकने जैसा शब्द किया। तब सब लोग डर गये। वे उसे त्याग देने का सोच ही रहे थे कि आकाशवाणी हुई कि ये बहुत बलवान और श्री सम्पन्न होगा, इसका पालन करों। जिसकी गोद में देने से इसकी दो भुजाएँ और तीसरा नेत्र लुप्त हो जाएगा उसी के हाथों इसकी मृत्यु होगी।

ब उसके पश्चात चेदिराज, जो भी मिलने आता उसकी गोद में शिशुपाल को रखते, परन्तु उस की तीसरी आँख और भुजा नहीं गई। एक दिन श्रीकृष्ण अपनी बुआ जोकि शिशुपाल की माता थी, से मिलने आई तो उन्होंने उनकी गोद में भी शिशुपाल को डाला। डालते ही उसकी फालतू भुजाएँ और तीसरी आँख गिर गई। ये देख कर माता भयभीत होकर श्रीकृष्ण से प्रार्थना करने लगी कि हे श्रीकृष्ण ! मुझे वर दो कि तुम मेरे पुत्र को नहीं मारोगे।

तब श्रीकृष्ण जी ने उन्हें वचन देते हुए कहा- “हे बुआ ! अगर तुम्हारा पुत्र अपने दोषों के कारण से मेरे द्वारा वध करने योग्य होगा तो भी मैं इसके सौ दोष क्षमा कर दूँगा।”

कुरूक्षेत्र युद्ध से पहले पांडवों की सभा में जब शिशुपाल के सौ दोष समाप्त हो गये तो एक सौ एकवें दोष पर श्रीकृष्ण जी ने युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में आये हुए शिशुपाल का वध कर दिया।

एवमुक्त्वा यदुश्रेष्ठश्चेदिराजस्य तत्क्षणात् ।

व्यपाहरच्छिरः क्रुद्धश्चक्रेणामित्रकर्षणः ॥ २५ ॥

न्तवक्र का जन्म एक अत्यंत शक्तिशाली योद्धा के रूप में हुआ था। वह श्रीकृष्ण के मामा कंस का मित्र और चेदिराज दमघोष का बेटा और शिशुपाल का भाई था। उसकी माता का नाम श्रीकण्ठा था, जोकि श्रीकृष्ण की बुआ लगती थीं। इस प्रकार, दन्तवक्र भी श्रीकृष्ण का रिश्तेदार था। अपने भाई शिशुपाल के मरने के पश्चात उसने श्रीकृष्ण से प्रतिशोध लेने की प्रतिज्ञा की। लेकिन युद्ध के दौरान श्रीकृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र से उसका वध कर दिया।

स प्रकार से दोनों पार्षदों का जन्म भी हुआ और उनकी मृत्यु भी हुई। और वे फिर से भगवान के यहाँ पर जाकर पार्षद बन गये। (कृष्ण एक सत्यज्ञान पुस्तक के अंश)


 
 
 

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Oct 14, 2024
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