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श्रीमद्भगवद्गीता के पहले अध्याय की व्याख्या

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धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।

मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय॥ १॥

महाभारत के तृतीय खण्ड के भीष्मपर्व के पञ्चविंशोऽध्यायः से श्रीमद्भगवद्गीता का आरम्भ होता है। इस के प्रथम अध्याय का पहला श्लोक, जिसे जन्म से ही नेत्रहीन धृतराष्ट्र, अपने सलाहकार, मंत्री और सारथी संजय से पूछते हैं-

व्याख्या: श्रीमन्महर्षि वेदव्यास जी ने बहुत सरल भाषा में ये श्लोक बहुत शुरूआत में ही लिखा है। परन्तु ये श्लोक जन्म से अन्धे, अभिमान में डूबे, पुत्रमोह से ग्रस्त एक अभिमानी राजा अपने सेवक से पूछ रहे हैं। उनका ये प्रश्न ही ग़लत है। पाण्डु पुत्रों ने कभी भी युद्ध की इच्छा नहीं की थी। उन्होंने भी श्रीकृष्ण की तरहं से हर संभव प्रयास किया था कि किसी भी प्रकार से ये महायुद्ध ना हो। यह सब उनके सामने ही घटित हुआ था। वह स्वयं उस घटना के रचयिता भी थे और दृष्टा भी थे। हम मानवों को ये समझाने के लिए कि क्या करना कर्म है ? क्या धर्म है ? वह वहाँ पर थे।

कहने को तो धृतराष्ट्र इतने बड़े राज्य के महाराज थे। परन्तु वे जन्म से दृष्टिहीन थे। पुत्रमोह में वह बुद्धि से भी हीन हो गये थे। वह चाहते तो ऐसे कई मौके आये थे, जब युद्ध होना टल सकता था। परन्तु महाराज धृतराष्ट्र के बुद्धि से अन्धे पुत्रों की इच्छा ही केवल यह थी कि युद्ध हो। इसी लिए युद्ध हुआ और लाखों लोगों के संग अन्धे महाराज धृतराष्ट्र के सम्पूर्ण वंश का भी नाश हो गया। यह युद्ध शायद बच सकता था अगर उन्होंने संजय से ये पूछा होता कि युद्ध की इच्छा वाले मेरे पुत्रों ने क्या किया है ?’ लेकिन उन्होंने पूछा ‘युद्ध की इच्छा वाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया ?’ पुत्र भेद उन्होंने स्वयं ही पहले कहे शब्दों में ही कर दिया था। जोकि जरूरी नहीं था। अभी तो उनके बहुत पहले से कहते आ रहे अनुसार वे सब उनके पुत्र ही तो थे। पिता का आदेश मानते हुए, पुत्र होने के नाते ही तो युधिष्ठिर जुआ खेलने दोनों बार आ गये थे। वह स्वयं कहते भी हैं कि मैं अपने पिता समान महाराज की आज्ञा का उलंधन नहीं कर सकता।

आगे चल कर जिस अभिमान और लोभ की बात श्रीमद्भगवद्गीता में कही गई है, उसकी शुरूआत तो श्रीमद्भगवद्गीता के पहले श्लोक में ही सबको समझ आ जानी चाहिए कि अंधा होना और विवेक से अंधा होना, दोनों में अन्तर होता है। ‘युद्ध होगा ही’ – ये तो पहले श्लोक के माध्यम से ही धृतराष्ट्र ने बता दिया है। वे केवल अपने कौरव पुत्रों को ही अपना मानते हैं, पांडवों को नहीं। यह उनकी मानसिकता और पक्षपात को दर्शाता है। अगर ऐसा ना होता तो वे केवल ये पूछते कि युद्ध की इच्छा वाले मेरे पुत्रों ने क्या किया ? इस मानसिकता और पक्षपात के कारण ही अन्धे महाराज धृतराष्ट्र के सभी पुत्र यहाँ पर युद्ध भूमि में अपने भाइयों के सम्मुख खड़े हैं। और वह यह भी जानते हैं कि अगर युद्ध होता है तो उसका उद्देश्य केवल राज्य प्राप्ति ही है परन्तु वे स्वयं को धोखा देने की कोशिश कर रहे हैं। जब मानव इस स्थान पर पहुँच जाता है तो उसका पतन जरूर होता है। हालांकि उनका यह पूछना, उनके भीतर के डर को भी दर्शा रहा है।

एक बात महाराज धृतराष्ट्र ने स्वयं ही स्वीकार कर ली है कि ये क्षेत्र धर्म क्षेत्र है। ये वे भूमि है जहाँ पर धर्म की रक्षा होती है, जहाँ सत्य और न्याय की रक्षा होती है। ये उनके हृदय में दिखाई देने वाला भय भी यही बता रहा है कि वह धर्म की तरफ तो हैं नहीं, इसलिए उनकी हार हो सकती है। ये युद्ध धर्मभूमि में होने वाला है। इसलिए उनके हृदय में बहुत भय व्याप्त हो रहा है।

और दूसरा वह ये भी कह रहे हैं कि युद्ध कुरुक्षेत्र में होने वाला है, ये भूमि कुरुक्षेत्र है, ये कहना उनके अभिमान को दर्शाता है। वह युद्ध भूमि में खड़े हुए भी ये नहीं भूले कि ये कुरु भूमि है। ये उनकी भूमि है, ये उनका अभिमान ही तो है कि उनके परिवार के सभी लोग आमने-सामने इस युद्ध भूमि में युद्ध हेतु खड़े हैं। युद्ध में किस की हार होती है और किस की जीत या कौन मरेगा और कौन बचा रहेगा, युद्ध शुरू होने से पहले इसे कोई नहीं जान सकता। हो सकता है कि युद्ध के पश्चात ये भूमि कुरुक्षेत्र ना कहलाए। परन्तु वह यहाँ पर भी अपनी भूमि को अपनी बता रहे हैं और कल्पना कर रहे हैं कि युद्ध के बाद भी उन्हीं की ये रहने वाली है।

धर्मक्षेत्र कभी भी किसी की भूमि, हो ही नहीं सकती। उसका केवल श्रीकृष्ण ही स्वामी हैं। उस का कोई रखवाला हो सकता है, परन्तु स्वामी नहीं। अगर धृतराष्ट्र इस युद्ध भूमि को कुरुक्षेत्र कह रहे हैं तो ये धर्मभूमि नहीं है। और अगर ये धर्म भूमि है तो कुरु भूमि नहीं हो सकती। जहाँ धर्म वास करता है वहाँ श्रीकृष्ण वास करते हैं। और जहाँ वे वास करते हैं तो वे उन्हीं का निवास स्थल होता है। जब वे उन का है तो कौरवों का या किसी दूसरे का कैसे हो सकता है। वे तो उन्हीं का ही रहेगा। उन के निवास स्थल में उन के सेवक रह सकते हैं, परन्तु वे मालिक नहीं बन सकते। मालिक वह ही रहेंगे। ये मानव को सदा याद रखना होगा।

कोई भी भूमि किसी मानव के नाम सदा नहीं रह सकती।

(श्रीकृष्ण ने कहा - अध्याय 1 किताब मे से लिए पहले श्लोक के कुछ अंश )

 
 
 

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