गंगा पृथ्वी पर दो बार आई है
- rajeshtakyr
- Oct 7, 2024
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Updated: Oct 20, 2024

ब्रह्मपुराणम् के दो भाग हैं, एक का नाम पूर्वभागः और दूसरे का नाम उत्तरभागः है। पूर्वभागः के अध्याय संख्या ७२ ‘शिवविवाह’ के अंर्तगत कथा में गंगा की उत्पत्ति के बारे में बताया गया है।
भगवान शिव और माता गौरी के विवाह के समय किन्हीं कारणवश ब्रह्माजी को पातित्य प्राप्त हो गया था। मंडप से ब्रह्माजी को जाते देख कर शंकर जी ने नन्दी जी को कहा- “हे नन्दी ! तुम ब्रह्मा को वापिस बुलाओ। मैं उनको निष्पाप करूंगा।”
भूमिं कमण्डलुं कृत्वा तत्रापः सन्निवेश्य च ।
पावमान्यादिभिः सूक्तैरभिमन्त्र्य च यत्नतः॥२६॥
त्रिजगत्पावनीं शक्तिं तत्र सस्मार पापहा ।
मामुवाच स लोकेशो गृहाणेमं कमण्डुलम् ॥२७॥
ऐसा कह कर भगवान शिव ने अपने हाथ में लिए हुए कमण्डलु को भूमि मान कर, उसमें रखे हुए जल को पावमानी नाम का सूक्त पढ़ कर अभिमन्त्रित किया और फिर उसमें अपनी त्रैलोक्यपावनी दृष्टि डाली। तब भगवान शिव बोले-“ये कमण्डलु का जल पापियों के सभी प्रकार के पापों का हरण करने वाला हो जाए। इस जल से उनके सभी पाप धुल जाएं और वे पवित्र हो जाएंगे। मैनें उनके द्वारा होने वाले सभी पापों को दोष मुक्त कर दिया है और उनके पवित्र सार सर्वस्व को प्राप्त कर लिया है।” ऐसा उन्होंने आने वाले समय के लोक कल्याण के लिए किया।
फिर ऐसा कह कर वह कमण्डलु भगवान शंकर ने ब्रह्माजी को ये कहते हुए सौंप दिया कि इस जल को उसी प्रकार माता समझो जिस प्रकार से ये भूमि माता है। इस कमण्डलु के जल में सनातन धर्म की महिमा है, यज्ञों का सार है, शरीर से मुक्ति और भुक्ति का वचन है, इसी में चलायमान और अचल जीवों का अस्तित्व है। इस में जीवन जीने के सभी साधन रहेंगे। सृष्टि के निर्माण, संरक्षण और विनाश में इस जल की सदा भूमिका रहेगी। ये आध्यात्मिक मुक्ति का आधार भी है। इसमें जीवन के सभी सुख मौजूद हैं। इस जल का स्मरण करने मात्र से जीवन के सभी मानसिक पाप नष्ट हो जाएंगे। इसके गुणों का वर्णन करने से और इसमें स्नान करने से काया के सभी पाप नष्ट हो जाएंगे। ये जल अमृत समान ही है। इस जल के नाम के कीर्त्तन करने से मनुष्य की सभी कामनायें पूर्ण हो जाएंगी। हे ब्रह्मा ! आप इसे ग्रहण करें। ऐसे कहते हुए भगवान शंकर ने वे कमण्डल ब्रह्मा जी को प्रदान कर दिया। उस कमण्डल में परम पवित्र गंगा थी। जिसे सर्व कल्याण के लिए शिव ने ब्रह्माजी को दिया था।
आपो वै मातरो देव्यो भूमिर्माता तथाऽपरा ।
स्थित्युत्पत्तिविनाशानां हेतुत्वमुभयोः स्थितम्॥२८॥
अत्र प्रतिष्ठतो धर्मो ह्यत्र यज्ञः सनातनः ।
अत्र भुक्तिश्च मुक्तिश्च स्थावरं जङ्गमं तथा ॥२९॥
कुछ समय उपरांत वामन अवतार में जब भगवान विष्णु ने राजा बलि से तीन पग भूमि मांगी और एक पग में सारी पृथिवी को मापने के लिए उस असुरेश्वर बलि के यज्ञ में अपना चरण रखा। उस यज्ञ भूमि के नीचे धरती का आधार कूर्मपृष्ट था जिस से सारी धरती को विष्णु जी ने नाप लिया। और दूसरा पग नापने के लिए अपना चरण उठाया तो भगवान विष्णु का वह पग ब्रह्मलोक तक चला गया। तीसरे पग की जगह ना मिल पाने के कारण से वह पग विष्णुजी ने बलि राजा की पीठ पर रख दिया और इस प्रकार से बलि का वचन पूरा किया और राजा को वरदान दिया।
किं कृत्यं यच्छुभं मे स्यात्पदे विष्णोः समागते ।
सर्वस्वं च समालोक्य श्रेष्ठो मे स्यात्कमण्डलुः॥५९॥
विष्णु जी का पग ब्रह्मलोक में आ जाने के कारण ब्रह्मा जी ने सत्कार करने हेतु कमण्डल का जल अभिमन्त्रित करके उसे सबसे पवित्र मानते हुए विष्णुजी के चरणों में अर्पित कर दिया। चरणों पर गिरते ही वह अर्घ्यजल मेरु पर्वत पर गिर गया। जहां पर वह जल चार भागों में विभाजित हो गया और पृथिवी की ओर प्रवाहित होने लगा। जो जल पूर्व दिशा की तरफ़ गया उसे पितृगणों, देवताओं, ऋषिगणों और लोकपालों ने अति पवित्र मान कर आदर से ग्रहण कर लिया। वह श्रेष्ठ जल कहा गया है। जो जल विष्णु जी के चरणों से लग कर दक्षिण दिशा को गया था वह जगत् के लिए माता के समान माना गया। उसे शंकर जी ने अपनी जटाओं में धारण कर लिया। क्योंकि वह साक्षात ब्रह्म स्वरूप था। जो जल का भाग पश्चिम दिशा की ओर गया था वह वापिस ब्रह्माजी के कमण्डलु में आ गया। जो जल उत्तर दिशा की तरफ़ गया उसे विष्णुजी ने स्वयं अपने पास रख लिया। इस प्रकार से पूर्ण गंगा का केवल एक पूर्व दिशा की ओर गया हुआ भाग ही पृथिवी पर आया था।
इमां देवी जटासंस्थां पावनीं लोकपावनीम् ।
तव प्रियां जगन्नाथ उत्सृज ब्रह्मणो गिरौ ॥३५॥
सर्वासां तीर्थभूता तु यावद्गच्छति सागरम्।
ब्रह्महत्यादिपापानि मनोवाक्कायिकानि च॥३६॥
कुछ समय उपरान्त जो भाग भगवान शिव ने अपनी जटाओं में गंगा का धारण किया हुआ था उसे माता पार्वती जी के कहने पर और ब्राह्मण समाज के अनुग्रह से ब्राह्मण गौतम ऋषि ने अपने कठोर तपोबल तथा अग्नि की कृपा से भगवान शिव से मांग लिया। तब भगवान शिव ने उस लोकपावनी गंगा को महर्षि गौतम के कहने से ब्रह्मगिरि पर्वत पर छोड़ दिया। महर्षि गौतम ने भगवान शिव से कहा-“हे हरे ! इसमें सभी प्रकार के मन से कहे हुए, मुँह से कहे हुए, शरीर से किए हुए पाप बह कर सागर में जाकर मिट जाएं, ये सबसे प्रमुख तीर्थ हो। इसके स्मरण मात्र से पुण्य मिले।” उन्होंने आगे ये भी कहा-“हे प्रभु ! आप ये भी वरदान दें कि इस देवनदी के तट के दोनों ओर दस योजन दूर तक रहने वाले लोगों के ब्रह्म हत्या जैसे महापाप भी नष्ट हो जायेंगे। उनके पितृ अगर महापापी भी हों तो भी उनकी मुक्ति हो जायेगी।”
तब भगवान् बोले-“सभी तीर्थों में ये तीर्थ विशिष्ट तीर्थ होगा। ये तीर्थ गौतमी तीर्थ कहलाये गा। और यह नदी गौतमी या गोदावरी नदी कहलाये गी।” ऐसा कहते हुए भगवान शिव ने अपनी जटाओं की गंगा को गौतम ऋषि को सौंप दिया। जिसे गौतम ऋषि ने ब्रह्मगिरि पर्वत पर छोड़ा था। वह सागरगामिनी गंगा पूर्व सागर की तरफ़ प्रयाण करती है। वैसे शास्त्रों के अनुसार सब मिला कर गंगा पन्द्रह धाराओं में विभक्त है।
वहाँ से गंगा ने अपने को तीन भागों में बांट लिया। गंगा का एक भाग स्वर्ग लोक में चला गया, उसे मंदाकिनी कहा गया, एक भाग मृत्यु लोक में और एक भाग पृथ्वी के नीचे स्थित सात लोकों में से छठे लोक में चला गया। तीन भागों में बट जाने के कारण से गंगा को त्रिपथगा भी कहा जाता है।
भगीरथः प्रणम्येशं हृष्टः प्रोवाच शङ्करम्॥६१॥
जटास्थितां पितॄणां मे पावनाय सरिद्वराम् ।
तामेव देहि देवेश सर्वमाप्तं ततो भवेत्॥६२॥
जो भाग भगवान शिव की जटाओं में दुबारा से धारण हुआ था उसी गंगा को तेजस्वी और हर दृष्टि से धार्मिक राजा दिलीप के पुत्र भगीरथ, भगवान शिव से मांग कर इस धरती पर फिर से लाये थे। जिस से उन्होंने अपने पितरों का उद्धार किया था। राजा भगीरथ के कहने पर ही माता गंगा हिमालय पर जाकर पूर्व सागर की ओर बहने पर सहमत हुईं थीं। विन्ध्य पर्वत के दक्षिण की ओर बहने वाली गंगा गोमती गंगा कहलाती है और दूसरे भाग से विन्ध्यगिरि पर्वत के उत्तर में जाकर बहने वाली गंगा भागीरथी गंगा कहलाती है। (कृष्ण एक सत्यज्ञान पुस्तक के अंश)



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