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कृष्ण एक गुरू

Updated: Oct 11, 2024

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कृष्ण कौन हैं? इसका उत्तर शब्दों में देना बहुत कठिन है। वे अनन्त हैं, कृष्ण को केवल भगवान नहीं कहा जा सकता। अगर ऐसा होता तो उन अजन्मे और अखिलात्मा को बार-बार इस पृथ्वी पर जन्म नहीं लेना पड़ता। वे भगवान के अलावा एक उच्चतम से उच्चतम गुरू हैं। जिसने उनसे शिक्षा ले ली फिर उसे इस जन्म में तो क्या किसी जन्म में भी कुछ शिक्षा लेने की आवश्यकता शायद ही पड़ सकती है। उनका कहा प्रत्येक शब्द और उनका किया प्रत्येक कार्य मानव जाति के लिए ही केवल नहीं बल्कि देवताओं के लिए, ऋषि-मुनियों के लिए वेदवाणी है, मुक्ति का द्वार है। परन्तु वह लीलापति हैं, इसीलिए गीता को छोड़ कर उनका कहा कोई भी शब्द लीला से परे नहीं है। अगले ही पल वे क्या करेंगे ये नहीं समझा जा सकता। उन्होंने हम मानवों को सत्यज्ञान की शिक्षा दी है। जिसको समझ कर हम अपने कुल का ही नहीं बल्कि आने वाली पीढ़ियों का भी निर्वाह कर सकते हैं। वह हमसे कुछ लेना नहीं चाहते, केवल हमें देना चाहते हैं। परन्तु इसे समझना होगा। और उसके लिए उनके बताये हुए सत्यज्ञान का पाठ उन्हीं के कहे शब्दों में हमें खोजना जारी रखना होगा। तभी हम मुक्ति पा सकते हैं। उनका कहा हुआ ये सत्य का ज्ञान है क्या?

त्य ज्ञान का तात्पर्य उस ज्ञान से है जो वास्तविकता, सत्यता और शाश्वत तत्वों से भरा हुआ है। यह ज्ञान किसी भ्रम या माया से परे है और जीवन के सर्वोच्च सत्य को समझने में सहायक है। ये आध्यात्मिक मुक्ति, मोक्ष और आत्म-साक्षात्कार का मार्ग है। यह ज्ञान हमें बताता है कि इस संसार में जो दिखाई देता है वह क्षणिक और अस्थायी है, जबकि परमात्मा यानि आत्मा एक ब्रह्म सत्य है और वही शाश्वत है, वही सदा से था और वही सदा रहेगा। इसे उन्होंने बहुत आसान शब्दों में गीता में कहा था कि आत्मा अजर-अमर है और हमारी ये हाड़-मांस से बनी हुई देह नाशवान है, इसे एक दिन नष्ट होना ही है। जो उत्पन्न हुआ है वह जन्मते ही, बाल्यावस्था में, युवावस्था में, मध्यमवय में और या फिर जराग्रस्त होने पर मर ही जायेगा। यह परम सत्य ही संसार के सभी प्राणियों का आधार है। इसके अलावा संसार में जो भी माया या भौतिक संसार के तत्व हैं, वे अस्थायी हैं और सत्य नहीं हैं। यही सत्यज्ञान हमें जन्म-मरण के चक्र से ऊपर उठने की प्रेरणा देता है। जिस प्रकार से कपास का बीज तन्तुओं के कारण सूत्रों से घिरा रहता है इसी प्रकार से मनुष्य भी सारा जीवन नाना प्रकार के कष्टों से घिरा रहता है।

ब्रह्म या परमात्मा ही इस संसार का मूल है, और वही सर्वत्र व्याप्त है। उपनिषदों में कहा गया है कि ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करने से ही आत्मा और परमात्मा की एकता का अनुभव होता है। यह संसार माया के रूप में भिन्न-भिन्न प्रतीत होता है, लेकिन ब्रह्म सत्य है और एक है। अज्ञान के कारण व्यक्ति भ्रम में फँस जाता है, और वह संसार के अस्थायी सुख-दुःख, राग-द्वेष में ही उलझा रहता है। सत्यज्ञान से यह अज्ञान दूर होता है और व्यक्ति सच्चे रूप से संसार की वास्तविकता को समझता है। सत्यज्ञान अद्वैत वेदांत में बिना भेद की स्थिति को प्राप्त करना है, जहाँ व्यक्ति अपने और ईश्वर के बीच कोई भेद नहीं मानता। वह देखता है कि आत्मा और परमात्मा एक ही हैं। श्रीकृष्ण द्वारा रासलीला करना हमें यही स्थिति का ज्ञान कराने के लिए है। रास में भगवान और गोपियों के बीच में कुछ नहीं रहता। शरीर की कोई बाधा नहीं होती केवल परमात्मा होता है और हमारी आत्मा होती है, जोकि हैं ही एक। वही सच्चा मिलन कहा जा सकता है। यही सत्यज्ञान है जो वे हमें देना चाहते हैं। क्योंकि उसके पश्चात आप की कोई इच्छा, आपका कोई दुःख या सुख रह ही नहीं जाता, सब दूर हो जाता है या पूर्ण हो जाता है। क्योंकि आप स्वयं ही परमात्मा हो गये हो, कोई तृष्णा या अपूर्णता रह ही नहीं गई, आपने सब कुछ प्राप्त कर लिया है।

गवद्गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन को इसी सत्यज्ञान का उपदेश देते हैं। उपनिषदों में सत्यज्ञान को ब्रह्मविद्या कहा गया है, जो व्यक्ति को मोक्ष प्राप्ति की ओर ले जाती है। चांदोग्य उपनिषद में सत्यज्ञान का एक यह सूत्र कहा गया है। उसमें कहा गया है- ‘तत्त्वमसि’ यानि ‘तू ही ब्रह्म है।‘ इसका भी यही अर्थ है कि आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं है। यही सत्यज्ञान का सबसे बड़ा संदेश है। माया के बंधनों से ऊपर उठकर अगर सत्य को समझ लिया तो मोक्ष की प्राप्ति यानी जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति मिल जाएगी और आध्यात्मिक शांति और परम आनंद की भी प्राप्ति हो जाएगी।

ब्रह्मवैवर्तपुराणम् में श्रीकृष्णजन्मखण्डम् पञ्चविंशोऽध्यायः (२५ अध्याय) में भगवान विष्णु दुर्वासा ऋषि से कहते हैं:

पुत्रान्पौत्रान्कलत्रांश्च राज्यं लक्ष्मीं विहाय च।

ध्यायन्ते सततं ये मां को मे तेभ्यः परः प्रियः ॥ ११४॥

परा भक्तान्न मे प्राणा न च लक्ष्मीर्न शङ्करः ।

न भारती न च ब्रह्मा न दुर्गा न गणेश्वरः॥ ११५॥

न ब्राह्मणा न वेदाश्च न वेदजननी परा ।

न गोपी न च गोपाला न राधा प्राणतः प्रिया ॥ ११६॥

जो व्यक्ति अपनी पत्नी, पुत्र, धन, राज्य और पौत्र को छोड़ कर मेरा सतत् ध्यान करता है, भला मैं उसे कैसे छोड़ सकता हूँ?  उस से प्रिय तो मुझे कोई दूसरा हो ही नहीं सकता। मेरे स्वयं के प्राण भी उस भक्त के प्रेम से अधिक प्रिय मुझे नहीं है। मेरे उन भक्तों से बड़ कर मुझे लक्ष्मी, सरस्वती, शंकर, वेद, वेदजननी सावित्री, गोप, गोपियाँ, ब्राह्मण, गणेश्वर, दुर्गा, यहाँ तक कि ब्रह्मा भी मुझे प्रिय नहीं है, ये आप जान लो। उस भक्त से बड़कर मेरी प्राणाधिक प्रिय राधा भी मुझे प्यारी नहीं है। ये बात जो मैनें अपने भक्तों के सम्बंध में तुमसे कही है, ये कोई अतिरंजित बात नहीं है। जो ये नहीं जानते वह परमात्मा को जानते ही नहीं है। मैं वैष्णवगण का प्राण हूँ और वैष्णव मेरे प्राण हैं। मैं सर्वदा भक्तों के अधीन रहता हूँ, चाहे मैं गोलोक में द्विभुज रूप में रहूं या वैकुण्ठ में चतुर्भुज आकार में रहूँ। मेरे प्राण तो मेरे भक्तों की निकटता में ही रहते हैं, मेरा सुदर्शन चक्र सदा मेरे भक्तों की रक्षा करता रहता है। यह मैनें तुमसे कह दिया है, यही वास्तव में सारतत्त्व है।

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